2022.06.09.

Pankhuri Sinha - Diary from Pécs

हंगेरियन लैंडस्केप ---मेरी पेच डायरी

 

सुखांत---जबकि यह शुरुआत है ----और इस आशा के साथ कि यात्रा का कभी अंत न हो!

 

ऐसा लगा जैसे प्लेन ने बिना अधिक दौड़ लगाये, अचानक उड़ान भर ली और रौशनी में नहाई हुई राजधानी दिल्ली अचानक खिड़की के नीचे आ गई! आरे तिरछे उड़ते हवाई जहाज़ के पंख का एक हिस्सा भी लगातार वियू पॉइंट में बना रहा! ज़रा ही देर में रौशनी का चहबच्चा बना शहर, रौशनी की हल्की झिलमिलाहट और फिर एक फ़ीकी टिमटिमाहट में तब्दील होता, पीछे छूट गया और बादलों ने आकर ऊँगली थाम ली!

 

मनचले बच्चों से, रुई के फाहों से बादल के टुकड़े कुछ दूर साथ साथ चलते रहे, फिर जैसे जैसे हवाई जहाज ऊपर और ऊपर की ओर उड़ता गया, बादल भी नीचे आ गए!

 

बादलों की एक घनी, मोटी चादर ज़रा नीचे ऐसे बिछ गयी कि मन होने लगा हाथ बढ़ा उसे छूकर देखूँ, कहीं यह पहाड़ पर गिरी ताज़ी बर्फ़ तो नहीं? 

 

लेकिन, यह चादर इतनी समतल है और इतनी मोटी कि पहाड़ नहीं हो सकते,  इसके नीचे! क्या मैदान हैं इसके नीचे, क्या कोई झील, नदी, समुद्र? आखिर, हम कितनी दूर आ गए हैं? मैंने मिनटों का हिसाब  छोड़ दिया है! यह पहली फ्लाइट बहुत लंबी नहीं! 

 

क्या दिल्ली से दुबई के बीच लहराते हिन्द महासागर के ऊपर पहुँच गए हम? क्या यह जहाज़ गल्फ ऑफ़ ईडेन के ऊपर उड़ने वाला है? और क्या उसके भी आगे, लाल समुद्र पर!

 

रात इतनी गहरी और काली है कि अगर नीचे समुद्र भी हो तो शायद ही नज़र आए ! जाने नीचे का समुद्र कितना नीला हो? दुनिया में कहां कहां बचे हैं नीले रंग के समुद्र? एक यात्रा की जा सकती है, पाने के लिए  इस सवाल का जवाब! शायद यह यात्रा, उन यात्राओं की शुरुआत है! जो समुद्र नहीं, नदियों से शुरु हो रही है! पहला पड़ाव, बुदापैश्त! डेन्यूब किनारे! ओह, कितनी हरी, कितनी नीली होगी वह नदी, जो भूगोल और इतिहास की किताबों में से न जाने कब से झाँक रही है मन के भीतर!

जैसे जैसे गहराता गया, यूरोप के इतिहास का अध्ययन, और पास आती गयी यह नदी! और अब पहली बार साक्षात्कार उससे! अब और ज़्यादा लंबी नहीं यात्रा! दिल्ली से सुबह 4 20 में उड़ने वाला हवाई जहाज, अब किसी सुबह की ओर मुखातिब हो रहा होगा! एकदम अंधेरी से बीच बीच में कुछ रौशन हो जाती है रात जब कोई शहर, या गाँव या बस्ती कोई इंसानी आती है, हवाई जहाज के पंखों के नीचे! वर्ना घटाटोप लगभग! ये तो बस बादल हैं, सफ़ेद और चमकदार जो रात के अंधेरे के सहचर हैं! 

 

फिर अचानक, जैसे कि वो आये थे, गायब हो जाते हैं बादल! जैसे बिछी थी, छू मंतर हो गई, वह सघन परत! वह मुलायम, गुदगुदी सी चादर, जिसे मन करता था, हाथ बढ़ाकर छू लूँ, जो ऐसी दिख रही थी मानो, हाथ बढ़ाने पर पकड़ में आ जाएगी या छलाँग लगाने पर अपनी गोद में थाम लेगी, वह भी अदृश्य हो गई, जाने हवा उड़ा ले गई उसे या तहाकर किसी सिरहाने रख दिया आसमान ने! 

 

कमाल का खिलाडी है आसमान भी! हर वक़्त साथ लेकिन कितना दूर! धरती सा हमारा बोझ उठाने को कतई तैयार नहीं! और इस धरती के गुरुत्वाकर्षण को लाँघना कितना बड़ा करतब!

 

नीचे के अथाह बियाबान में, किसी अनाम शून्य में, कुछ उबड़ खाबड़ पहाड़ सी रेखाएं उभर रहीं है लेकिन शायद पहाड़ से छोटी कम ऊँचीं! ये पठार भी नहीं, शायद क्योंकि नुकीले चेहरे, नुकीली पीठ है और बड़ी दूर तक फैले हुए! क्या यह यू ए ई के रेगिस्तान की शुरुआत है? क्या ये सैंड ड्यून्स हैं? मशहूर रेगिस्तानी आकृति?

 

शायद वही हैं और अगर हैं तो मैं दुनिया की एक अलहदा खूबसूरती से रुबरु हूँ, लेकिन, कहीं यह दृष्टि दोष तो नहीं? मैं खिड़की से सर सटा कर , आँखे गड़ाकर नीचे देखती हूँ! कुछ न कुछ तो है ज़रूर!

लेकिन क्या इतनी रौशनी है भी कि ज़मीन की फितरत को पहचाना जा सके? लेकिन भूरे, रेगिस्तानी, बलुई रंग के कुछ उभार हैं, जिन्हें नकारा नहीं जा सकता!

 

बीच बीच में बादल का कोई आवारा टुकड़ा भी चला आता है, चहल कदमी करता! क्या रेगिस्तान के ऊपर भी बादल उड़ते हैं? ओह, किन्तु, यह भूगोल की गुत्थियां सुलझाने का समय नहीं! ऐसा लग रहा है जैसे किसी जादुई एहसास में डूबने उतराने का समय हो, यूरोप की दूसरी यात्रा और पहली बार अकेली, मुमकिन है कुछ चिंताएं हों, थोड़ी सी घबराहट भी लेकिन उत्साह चरम पर है!

 

नीचे मिटटी-पत्थर की कलाकृतियों सी दिखती हुई, नक्काशीदार ज़मीन, फिर से ओझल है बल्कि अदृश्य और बादलों ने पूरी तरह अपनी आगोश में ले लिया है! रुपहले, सफ़ेद, स्लेटी बादलों के कोर पर एक हल्की तांबई रंग की आहट उभरती है और देखते ही देखते, सुनहली किसी किरण के फूटने की तरह की चमक आकर ठहर जाती है. भोर का पहला प्रहर, जहाँ रात अभी बीती नहीं! एक रक्तिम आभा का उदय हो रहा है, यह बताता कि अब जल्दी ही वह घटित होने वाला है जिसे हम सूर्योदय के नाम से जानते हैं. मैं इंतज़ार करती रही कि वहां जहाँ आसमान नारंगी रंग की अनेक परतों में खुलता बिखरता जा रहा है, एक चमकीला, पीला गोल स्वर्णिम सूरज दिखेगा, लेकिन रश्मियां इधर से उधर, चित्रकारी करती रहीं, आसमान का इतना बड़ा कैनवास उन्होंने खोला कि अमाप्य को समझने वाले भी हैरत में डूब जाएँ, लेकिन सूरज नहीं दिखा तो नहीं दिखा! लेकिन आप समझ सकते हैं कि यह बहुत अफ़सोस जनक नहीं था, क्योंकि जहाँ कहीं भी वह था , उसने रंग और रौशनी की कलाबाज़ी में आसमान को डुबो दिया था!

 

 

दुबई हवाई अड्डे पर भीड़ एकदम अंतरराष्ट्रीय है, और मुझे एकदम से घर पहुँचने का सा एहसास हो रहा है! उत्तर अमेरिका में १४ साल प्रवास के बाद, यह बहुत सहज बात है कि दुनिया के दो कोनों में एट होम फील हो! और किसी भी एक कोने का गायब हो जाना, घर के उस सुखद एहसास में खलल डाल सकता है!

और क्या यह हैरत की बात नहीं कि कनाडा से २०१४ में लौटने के बाद यह मेरी पहली अंतर्राष्ट्रीय यात्रा थी! अगर नेपाल को हटा दें तो! लेकिन, थोड़ी देर के लिए, नेपाल, और कनाडा समेत पहले की सभी यात्राओं को परे खिसका दें, फिलहाल दुबई हवाई अड्डे पर कहवे और वाइन की दुकानें आमने सामने थीं और कॉफ़ी की एक प्याली हाथ में लेकर इस विराट यात्रा की ख़ुशी को घूँट घूँट पिया जा सकता था. यह मेरी पहली राइटिंग रेजीडेंसी थी, हंगरी के पेच शहर में! सपनों के साकार होने जैसी! मेरा गंतव्य बुदापेश्त से भी आगे, पेच शहर में! यूरोप के बीचो बीच, कहें कि उसके दिल में!

और थी और था नहीं, बस है और है! मई की पहली तारीख से शुरू होने वाली है रेजीडेंसी, आज अप्रैल की २९ तारीख है! आज ही की तारीख, बुदापेश्त समय साढ़े नौ बजे पहुँच जाना है मुझे वहां! एक तारीख में २४ से कितने ज़्यादा घंटे जिए मैंने, पहले दिल्ली, फिर दुबई और अब आने वाले बुदापेश्त में!

 

कई मोड़ों के बाद, एयरपोर्ट पर अब यात्रियों की दो कतारें बन गयीं हैं ---यूरोपियन नागरिक एवं अन्य! अन्य वाली कतार भी ज़्यादा लम्बी नहीं, तेज़ गति से आगे बढ़ रही है. वीसा अफसर जल्दी ही मेरा पासपोर्ट वीसा सब ओके कर देती है, बैगेज क्लेम में, इक्के दुक्के और सामानों के साथ, सबसे पहले मेरा ही सूटकेस दिखता है, बाकी सब जा चुके हैं! फौरन उसे ट्रॉली में डाल, बाहर चली आती हूँ और लीजिये पहुँच गयी मैं हंगरी! अगले दरवाज़े के पार बुदापेश्त का खुला आसमान है!

              एहतियात के लिए मैंने बाहर निकलने से पहले, टैक्सी अथवा इनफार्मेशन लिखे किसी काउंटर से अपने गंतव्य जाने के बारे में पूछ लिया है. काउंटर के पीछे बैठी सुनहले बालों वाली महिला ने बताया है, टैक्सी २८ यूरो लेगी, बाहर प्री पेड काउंटर है! बहुत खूब! मैं टैक्सी वाले के साथ मोल भाव करने से बचना चाहती थी!

              एक नए देश की यात्रा की शुरुआत मीठी और सुन्दर होनी चाहिए! नवागंतुकों के लिए प्रीपेड से बेहतर और क्या हो सकता है? लाइन थोड़ी लम्बी है, और रात काफी ठंढी! कहें कि बर्फीली! मिनट भर के भीतर, नुकीली सर्द हवाएं बरछी सी चुभने लगीं हैं, जबकि टैक्सी बूथ के ऊपर अच्छी खासी छत है, दूसरी तरफ एयरपोर्ट की दीवार, लेकिन जितना हिस्सा खुला है वह आपको कंपा देने के लिए पर्याप्त है! यह अप्रैल का अंत कैसे हो सकता है ? बल्कि, मई की शुरुआत? क्या मौसम सम्बन्धी मेरी सभी आशंकाएं सच होने वाली हैं? इंग्लैंड आने जाने वाले इष्ट मित्रों ने बताया था कि यूरोप में ऐसी कोई गर्मी नहीं पड़ती! मतलब हर वक़्त हल्की सी सर्दी, ज़रा सी ठंढ! वो कहते हैं न हवा में खुनक! लेकिन, मैं भी इंग्लैंड गयी हूँ और खूबसूरत सी गर्मी थी! मुझे लगता है मई का ही महीना था, बहुत सुन्दर मौसम था! फिर, ऐसी ठंढ क्यों पड़ रही है? क्या मुझे ही लग रही है ऐसी भयानक ठंढ?

              आखिर, अगर दिल्ली में तापमान ४२ डिग्री सेन्ट्रीग्रेडे से ज़्यादा था, तो एयरपोर्ट के लिए निकलते वक़्त जूते मोज़े पहनने में क्या दिक्कत थी ? क्या मैं ग़लती से चप्पल खड़काती चली आयी थी? ये सवाल मुझे दुबई एयरपोर्ट पर भी मुझे परेशान कर रहा था, जहाँ ए सी की सुकून भरी नमी, वैसे तो भली लग रही थी लेकिन खुले पैरों को थोड़ी सी खल रही थी! ख़ैरियत थी कि दुबई एयरलाइन्स ने भी और यहाँ एयरपोर्ट पर भी, ए सी बड़ी खूबसूरती से चला रखा था, जिसका मतलब होता है इतनी ही ठंढक जो भली लगे! ए सी को हाड़ कंपाती सर्दी में तब्दील कर देना, कहीं न कहीं ग्रीष्म ऋतु के सौंदर्य को कम कर देना है, साथ ही, ऊर्जा की बर्बादी करना भी! बहरहाल, दुबई की गर्मी (क्योंकि जगह के नाम के साथ साथ, उसका मौसम तो ज़ेहन में आता ही है!) का ख्याल कर, जिन्होंने शॉर्ट्स पहने थे, उन्होंने भी जूते पहन रखे थे! गौर कीजिये, सारी दुनिया अमूमन जूते पहनती है! पश्चिम की महिलाएं कभी कभी, सैंडल नुमा चप्पल, वर्ना वे भी ऊँची एड़ी के बंद जूते नुमा ही अधिकतर! अगर परिधानों में भारतीयता का जवाब नहीं तो, चप्पलों की डिज़ाईनों में तो बिल्कुल नहीं! अभी मैं यह सोच ही रही थी कि टिपिकल भारतीय परिधान साडी और चप्पल में एक महिला मुझे दिख गयीं और मूड बन गया!

            और दुबई में मैंने पहली बार, कई अरब पुरुषों को उस अरब परिधान में देखा, जिसे अबतक तस्वीरों और फिल्मों में देखती आयी थी! विशाल एयरपोर्ट था, लेकिन दुबई और उससे पहले, अपने प्रस्थान बिंदु, राजधानी दिल्ली, हम दुबारा लौटेंगे, क्योंकि कई बार कथा वाचन  में कहानी का हर बिंदु एकसाथ आगे नहीं बढ़ सकता! कई बार, कुछ बिंदुओं को समानांतर चलना होता है, कम से कम कुछ दूर तक! दुबई से होकर आती हुई हवाई यात्रा, निश्चित रूप से वहां से निकलते ही खत्म नहीं होती, कम से कम गंतव्य तक पहुंचने तक यात्रा का हिस्सा रहती हैं, और उसके बाद अनेकों रूपों में स्मृतियों में! दुबई में मेरे लिए लगभग १० घंटे का ब्रेक था, जो कि फ्लाइट के डिले होने से ११ घंटे का हो गया था! इन ११ घंटों में मैं असल नीद के ४० मिनट भी नहीं सो पायी थी, पूरी झपकी भी नहीं! आधी नींद में ज़रूर थोड़ी देर यानी आधे घंटे से भी कम, आराम कर लिया था! आप आधी नींद समझते होंगे अगर बेहद थकान में भी, यात्रा के दौरान आप हल्की सी, पतली सी नींद ही लें पाए, जहाँ बाकी का वातावरण थोड़ी देर के लिए मद्धम हो जाता है बस! रमज़ान का महीना था और हर आज़ान के वक़्त, और हर आज़ान के वक़्त, अरबी भाषा में प्रार्थना के गीत बज रहे थे! इस संगीत की वजह से, शांति में कोई खलल नहीं था, और चूँकि दुबई से होकर यह मेरी पहली यात्रा थी, इसलिए मैं यह भी नहीं कह सकती कि ये प्रार्थनाएं रमज़ान की वजह से थीं या हर वक़्त होती थीं. एयरपोर्ट पर भीड़ बिल्कुल नहीं थी, कम कम से, दिलचस्प से दिखते हुए लोग और काफी शान्ति! इन घंटों में तीन कप कॉफ़ी के साथ, मैंने एक कविता पूरी कर ली थी, और दो के खाके बना लिए थे! दुबई एयरपोर्ट पर मैंने अपना ट्रेवेल कार्ड इस्तेमाल कर लिया था और वह ठीक काम कर रहा था, इसका इत्मीनान मेरे लिए बड़ी बात थी. तमाम तरह के रेस्टोरेंट थे, उनपर चहल पहल भी! अरबी सजावट के साथ, अरबी साज सज्जा, इत्र, चोकोलेट इत्यादि की आलिशान दुकानें थीं. यों कहें कि, आपको बाहर घूमने के लिए प्रेरित करने में एयरपोर्ट का कम योगदान न था! यहाँ तक कि एयरपोर्ट की आदमकद कांच की दीवारों से बाहर देखते, मुझे दुबई की कुछ ऊँची मीनारें भी दिख गईं थीं और सच मानिये मज़ा आ गया था! मैंने ट्रांजिट वीज़ा इत्यादि के लिए प्रयास नहीं किया था क्योंकि मेरा सारा ध्यान, बुदापेश्त और उसके आगे की यात्रा पर केंद्रित था!

हालाकि दुबई में तापमान ३२ डिग्री था लेकिन फिलहाल, बुदापेश्त की इस ठंढ में मुझे अपने खुले पैरों को देखकर बेहद झुंझलाहट हो रही थी, कहें कि क्रोध आ रहा था! आप कहेंगे कितनी छोटी बात है!? लेकिन, अप्रैल का अंत आ रहा था, बल्कि अंतिम तीसरा दिन था, और मौसम की यह बेरहमी, तुनक मिजाज़ी मेरी समझ के बाहर थी! क्या मुझे यूरोप के मौसमों की ठीक जानकारी नहीं, क्या मैं अमेरिकी प्रायद्वीप की ठंढ भूल गयी हूँ? लेकिन क्या अप्रैल का अंत वह समय नहीं होता, जब पेड़ों की कलियाँ पूरी महफ़िल को हरे रंग में रंग देती हैं! सब्ज़ हो जाता है सारा समा, डंके की चोट पर आ पहुँचता है वसंत! कितनी बेताब हूँ, उस वसंत को गले लगाने के लिए! एक बिछड़े दोस्त से लम्बे समय के बाद भेंट कर हाथ मिलाने के लिए! भर लेने के लिए उसे अपनी बाहों में! क्या आपने किसी मौसम से, किसी ख़ास देश या प्रायद्वीप के किसी मौसम, से प्यार किया है इस तरह? सात लम्बे सालों के बाद मैं देखने जा रही हूँ इस मौसम का चेहरा! रात गहरी काली है, शायद आस पास ढेर सारे पेड़ हों, जगह खुली है, इमारतें नहीं हैं! और इस खुले में, खुलकर, मचलकर चल रही है हवा, बर्फ सी ठंढी!

मौसम ऐसा कर सकता है, ये बात घर परिवार वालों के साथ हुई थी! मौसम से निपटने की पूरी तैयारी करके जाना, कहा था सबने! फिर, क्या विदेशी जूते खरीदने की अवचेतन में बनी कोई इच्छा, मेरे चप्पलों में आ धमकने की ज़ुर्रत के लिए ज़िम्मेदार थी? अगर आपको लगता है कि इतनी खूबसूरत जगह में मैं अपने ही परिधान का रोना रो रही हूँ तो दिल्ली, शिमला, कुलु, मनाली, धर्मशाला या नैनीताल कहीं भी अचनाक बर्फ़बारी में खुद को चप्पलों में देखने की कोशिश कीजिये! मेरी उलझन, मेरा दर्द समझ जाएंगे! यानि स्वर्ग के उद्यान में नंगे पाँव कांटे तो चुभेंगे! क्या मुझे एकबार फिर सिंडरेला की याद भी आने लगी थी? क्या मेरे रहते ऐसा ही रहेगा मौसम? ओह! नॉर्थेर्न हेमिस्फयर के ठंढे देशों की खूबसूरत गर्मियों की याद किसी पुराने चित्र सी मेरी आँखों के आगे तैर गयी!

अगर आप मौसम और जूते चप्पलों की चर्चा से कुछ अव्यवस्थित से हो गए हैं तो आपकी तसल्ली के लिए बता दूँ, बल्कि आप जानते होंगे इसलिए याद कर लें कि हम उसी शहर की बात कर रहे हैं जहाँ 'शूज़ ऑन द डेन्युब' नाम का ऐतिहासिक स्मारक है, जो द्वितीय विश्व युद्ध में फाशिस्ट हंगेरियन मिलिशिया ऐरो क्रॉस पार्टी द्वारा गोली से मारे गए यहूदियों की याद में है, जो गोली लगने से डैन्यूब में गिरकर बहते चले गए, और डैन्यूब के किनारे रह गए उनके जूते, जिन्हें उतारने का उन्हें आदेश दिया गया था!

इस स्मारक को हंगेरियन फिल्म निर्देशक कैन टोगे ने २००५ में बनवाया था, १६ अप्रैल के दिन! ये तारीखें मेरे लिए ऐतिहासिक संयोग का विषय हैं! पहली तारीख तो बड़ा सुखद संयोग है, वह दरअसल वह साल है जब मैंने सनी बफैलो के इतिहास विभाग में मास्टर्स में दाखिला लिया था. और दूसरी तिथि १६ उसी कैंपस में, जिससे मुझे बेइंतहा प्यार हो गया था, में मेरी हिरासत की है, बिल्कुल बेबुनियाद इल्ज़ामों के कागज़ात तैयार कर! उस किस्से और लड़ाई के उस अध्याय को इतनी बार और इतनी जगहों पर दुहरा चुकी हूँ कि अब यहाँ नहीं कहूँगी! यह मेरी ज़िन्दगी की एक बेहद खुशनुमा यात्रा है! सर्दी की ठिठुरन और चप्पलों में लगती ठंढ के बावजूद! बस, डैन्यूब तीरे जूतों के उस स्मारक को सबसे पहले देखना चाहती हूँ.

लेकिन फिलहाल, मेरे आगे टैक्सी की लाइन है, कि खत्म होने का नाम ही नहीं ले रही! मेरे ठीक सामने एक दक्षिण एशियाई जोड़ा प्रेम में इस तरह मशगूल है जैसे अभी अभी मिला हो! जबकि मैंने पूछकर यकीन कर लिया है कि वे विवाहित दम्पति हैं ! और मेरा यह अनुमान भी सही निकला है कि वे भारत से हैं! पुरुष स्त्री को इस तरह बाहों में जकड़े है, कि मिनट भर की ढ़ील हुई नहीं कि वह भाग खड़ी होगी! अथवा उसके साथ का एक पल भी क्यों गंवाया जाए? वैसे मुझे प्यार का पब्लिक प्रदर्शन सैद्धांतिक रूप से बहुत पसंद है, लेकिन न जाने क्यों इस लाइन में कुछ अटपटा लग रहा है. "क्या यहाँ अप्रैल अंत में ऐसी सर्दी पड़ती है?" मेरा यह अनुमान भी सही निकला है कि वे यहीं रहते हैं, पर्यटक नहीं! और इसमें तीरंदाज़ी की कोई बात इसलिए नहीं कि इसका अंदाजा उनका सामान देखकर ही लगाया जा सकता था! मुझे इस तरह रहने के लिए अथवा रहते हुए में भारत पर्यटन से अमेरिका लौटने की याद आ रही है! यात्राएं कितने तरह की होती हैं, हर यात्रा का स्वाद अलग! फिलहाल, मैं किसी किस्म की यादों में नहीं डूबना चाहती क्योंकि आने वाले तीस दिन ज़िन्दगी के बेहद खूबसूरत तीस दिनों में शुमार होने वाले हैं! बावजूद, हर पल कंपाती सर्दी के! जब भी हवा चलती है, पैरों को झिंझोरती कनकनी पूरी देह से होकर गुज़रती है. "यहाँ कुछ ज़्यादा ही ठंढ है. खुली जगह है", युवक ने शायद यह दिलासा भी दिया है कि मई में तापमान अच्छे हो जाते हैं!

अभी अभी स्कॉटिश या गे लड़कों का एक दंगल उतरा है, स्कर्ट पहने, शोर मचाता, उछलता-कूदता! उनकी खुली टाँगे भी ठंढ पर विजय पाने में मेरी बहुत ज़्यादा मदद नहीं कर पा रहीं हैं ! अब युवक का नंबर था और काउंटर पर बैठी, सुनहरे बालों वाली उम्र दर महिला उससे उसके घर का पता पूछ रही है! पलक झपकते मेरी बारी---"ग्रैंड बुदापेश्त हॉस्टल", मैं हुलस कर कहती हूँ! वह मुझसे भी पता पूछती है, एक्सेक्ट! जो मुझे मालूम नहीं! मैं दुबारा सिर्फ नाम बताती हूँ, ये कहते हुए कि क्या वह गूगल में ढूंढ सकती है प्लीज? यह अजीब बात है कि जो डेटा मैंने भरवाया था, बल्कि कहिये कि पूरा इंटरनेशनल पैक लिया था, वह खत्म हो गया है! अर्थात बिना मेरे इस्तेमाल किये! मुझे पक्की तौर पर याद है मैंने मोबाइल डेटा ऑफ किया था, और फोन के डॉक्यूमेंट पेज पर लिख रही थी, लेकिन कुछ घंटे बाद मैंने देखा मोबाइल डेटा ऑन था, जिसे ऑफ किया और जब दुबारा ऑन किया तो ऑन ही नहीं हुआ! यानी खत्म! ओह!

"दरअसल, एक से ज़्यादा ग्रैंड बुडापेस्ट हॉस्टल हैं", भद्र महिला एक हलकी सी मुस्कुराहट के साथ कहती है, फिर कहती है, "२८ यूरो", डॉलर से यूरो की हुकूमत में मेरा पहला प्रवेश है और हर बड़ी रकम पर ज़रा सा हलक सुखाने वाला! रुपये को यूरो में बदलने का एहसास बहुत खुशनुमा नहीं होता, अलबत्ता यूरो को रूपये में बदलना बहुत सुखद होगा! लेकिन, मैं अभी किसी हिसाब किताब में नहीं उलझना चाहती, न फेलोशिप के पैसे, न रहने को मिलने वाला आरामदेह अपार्टमेंट! टैक्सी दौड़ती हुई आती है, मैं सवार और अब सीधा बुदापेश्त! कल का पूरा दिन बुदापेश्त! एक दिन मैंने इस शहर के लिए रखा है और उसकी अगली सुबह, मेरी रेजीडेंसी के सुपरवाइजर मुझे पेच ले जाने खुद आ रहे हैं! यह सबकुछ किसी सपने के सच होने की तरह है!

थोड़ी देर तक, एयरपोर्ट के लम्बे चौड़े खाली रास्ते, और फिर शहर! पहले थोड़ा, थोड़ा, फिर पूरा पूरा! एक के बाद दूसरे मोड़, गलियां, लम्बी खुली सड़कें, सडकों पर गाड़ियां, लोग, फुटपाथ, ट्रैफिक साइंस और सिग्नल, एक सुनियोजित शहर की खूबसूरती! लगभग अर्ध रात्रि में जागता, मुस्कुराता शहर, लड़के लड़कियों के दौड़ते भागते, खिलखिलाते ठहाकों के साथ!

जगमगाहट की भीड़ में मैंने रौशनी में नहाती उस इमारत को पहचान लिया! वह बेतहाशे खूबसूरत इमारत हंगेरियन पार्लियामेंट की थी! और उसके ठीक सामने अँधेरे में सोई नदी डैन्यूब! उसपर जगमग पुल भी दिखा और मन हुआ दौड़ पडूँ!

'द पार्लियामेंट एन्ड द ब्रिज ऑन द डैन्यूब!" मैंने टैक्सी ड्राइवर से स्वीकृति चाही!

 

 "येस, दिस सिटी सेंटर!" उसने हामी भरी!

 

फिर, जल्दी ही सिटी सेंटर में रौशनी की बारात को छोड़कर टैक्सी शहर के अंदरूनी इलाकों की ओर बढ़ने लगी! अब आता होगा मेरा हॉस्टल, मैंने सोचा!

 

"बहुत दूर नहीं", कहा था उस महिला ने!

2

बुदापेश्त के एक बगीचे में

 सुबह मेरी नींद खुली तो सुनहरी चमकदार धूप बिखरी थी! चश्मा लगाकर जो चीज़ सबसे पहले दिखी वो सेब जैसे किसी पेड़ के खूबसूरत सफ़ेद फूल थे! और उसके पीछे हरा-भरा बेहद खूबसूरत बाग़! नींद टूटे बिना ही दिल बाग़ -बाग़ हो गया! मैंने पंखे जैसा वह हीटर ऑफ किया और दुबारा सो गयी. बाथरूम तक नहीं गयी! कमरा गर्म हो चुका था और बाहर धूप धीरे धीरे ठंढी रात को गर्म बना रही थी! अभी उठती हूँ, मैंने सोचा और वापस गहरी नींद में, जिसने कम से कम घंटे डेढ़ घंटे और सुलाए रखा!